Monday, November 28, 2011

फेसबुक




फेसबुक

फेसबुक... एक ऐसी सोशल नेटवर्किंग साइट... जिसने इस ग्लोबलाइज्ड दुनिया में लोगों को एक दूसरे से कुछ ऐसे जोड़ा... कि लोग कम्प्यूटर के साथ साथ मोबाइल पर भी ऑनलाइन रहने लगे... इस वेबसाइट का क्रेज शहरों तक ही सीमित नहीं रहा बल्कि इसने गांव में रहने वालों को भी अपना मुरीद बना लिया... इस वेबसाइट के जरिए लोग अपनी बातों को लिखकर दूसरों से आसानी से साझा करते हैं... कोई कवितायें लिखता है तो कोई लेख... कोई इस पर कई तरह की फोटो अपलोड करता है... तो कोई समाज और सरकार से जुड़े मुद्दों और समसामयिक घटनाओं पर टिप्पणी करता है... जिसे फेसबुक पर मौजूद करोड़ों लोग पढ़ते और उस पर अपनी प्रतिक्रिया देते हैं... लेकिन हम आपको जो बताने जा रहे हैं उसे सुनने के बाद आप चौंक जाएंगे.... अखबार दि संडे टेलीग्राफ के मुताबिक यूरोप में इन दिनों फेसबुक अपने यूजर्स की प्राइवेट सूचनाओं को इकट्ठा कर विज्ञापनदाताओं को बेच रहा है... जबकि फेसबुक ने इस बात से इंकार किया है...
अखबार ने दावा किया है कि फेसबुक अपने यूजर्स के राजनीतिक विचारों, सेक्शुएलिटी, धार्मिक मान्यताओं और ठिकानों से संबंधित जानकारियां जुटाने के लिए अत्याधुनिक सॉफ्टवेयर का इस्तेमाल कर रहा है... प्राइवेसी के उल्लंघन को लेकर पैदा हुयी चिंताओं के बाद यूरोपियन कमीशन अगले साल जनवरी में एक निर्देश लाने वाला है, जो ऐसी एडवर्टाइजिंग पर प्रतिबंध लगाएगा... लेकिन इसके पीछे यूजर्स की रजामंदी का तर्क भी दिया जा रहा है.... फेसबुक जो सूचनाएं इकट्ठा करता है वो अमेरिका में कम्प्यूटरों में स्टोर की जाती है.... अगर साइट नए कानून का पालन नहीं करती, तो उसे कानूनी कार्रवाई के लिए तैयार रहना होगा... फेसबुक पर हो रही इस तरह की गड़बड़ी को रोकने के मकसद से मौजूदा यूरोपियन डाटा प्रोटेक्शन कानून में जल्द ही बदलाव किये जाएंगे...
फेसबुक से जुड़ा ये कोई पहला मामला नहीं है... इससे पहले भी कई बार फेसबुक को लेकर खबरें आ चुकी हैं मसलन आपके फेसबुक अकाउंट को हैकर्स हैक करने की फिराक में रहते हैं लिहाजा अपना पासवर्ड समय समय पर बदलते रहंे... इसके अलावा खबरें ये भी आईं कि फेसबुक अकाउंट से लॉग आउट करने के बाद भी इससे व्यक्तिगत सूचनाएं चुराये जाने के प्रयास किये जा रहे हैं... फिलहाल तो यूरोप में ये मामला देखने को मिला है लेकिन भारत में फेसबुक यूजर्स को भी सचेत रहना होगा और तब जब भारत में मौजूदा फेसुबुक यूजर्स की तादाद लगभग 38 करोड़ है जिसके बढ़ने की संभावना लाजमी है...
 

Thursday, November 24, 2011

बैठकी की नई दुनिया



बैठकी की नई दुनिया
एक दौर था जब लोगों के पास वक़्त ही वक़्त था... तब शायद इन्सान की दुनिया उसके इर्द गिर्द  के कुछ ही हिस्सों तक महदूद थी... लेकिन बदलते वक़्त में हमने दुनिया का ग्लोबलाईजेशन देखा... और ये भी देखा कि कैसे हम सब एक दुसरे से दूर होते हुए भी तकनीकी सेवाओं और उपकरणों के ज़रिये कितने पास हैं... पर तस्वीर यहाँ पर थोड़ी सी ऐसे बदल जाती है कि पहले वक़्त था, सुकून था जो आज के दौर में शायद ही मिलता है... इसका कारण ये नहीं कि लोग आज पुराने तरीकों से जीना नहीं चाहते... और ना ही ये कि आज सभी अपने ही बारे में सोचने में लगे हैं... बल्कि ये बदलते वक़्त का ही बनाया एक नए तरीके का प्रयोगात्मक (PRACTICAL LIFE) मंच है, जिसके हम सब किरदार हैं जो अपने अपने अभिनय अंश का इंतज़ार कर रहे हैं... इस बदलती दुनिया में हमें शुक्रगुज़ार होना चाहिए तमाम सोशल नेटवर्किंग वेबसाईट का जिन्होंने हमें अपने पुराने और बिछड़े हमजोलियों से मिलाया... अगर थोडा और सरल भाषा में कहा जाए तो पहले दोस्तों की बैठकी घर, नुक्कड़ या फिर किसी पेड़ के नीचे होती थी, जो कि अब फेसबुक और ऑरकुट जैसे अड्डों पर होती है... हाँ मज़ा उतना तो नहीं आता जो एक साथ बैठ कर गपबाज़ी करने में आता था लेकिन इतना कम भी नहीं आता... इसलिए थैंक्स इस वैज्ञानिक दुनिया का जिसने हमे ये विकल्प दिया...

Wednesday, July 27, 2011

किसी का गया और किसी को मिला




किसी का गया और किसी को मिला


धमाका चाहे महाराष्ट्र में हो, उत्तर प्रदेश में हो, गुजरात में हो , मध्यप्रदेश में हो या फिर देश के किसी अन्य राज्य में... इनमें मरने वाला सिर्फ एक आम हिन्दुस्तानी होता है... धमाके की लपटें ना तो इनकी जाति पूछती हैं ना हैसियत और ना ही उनकी विचारधारा... ऐसे में सबसे अहम सवाल यही कि आखिर ये कब थमेगा और दूसरा कि लोकतंत्र की आत्मा का खून आखिर कब तक होगा रहेगा... सिर्फ दो ही सवाल नहीं बल्कि कई सवाल छोड़ जाते हैं ऐसे आतंकवादी धमाके... वहीं ऐसी घटनाओं के बाद कौन सी विचारधारा ऐसे मामलों में काम करती है, ये असली मुद्दा है...
ऐसी दर्दनाक घटनाओं का असर सबसे ज्यादा किस पर पड़ता है ये कह पाना बिल्कुल भी मुश्किल नहीं है... पर कौन लेगा इस सबकी जिम्मेदारी ये कोई नहीं जानता क्योंकि राजनेता अपना उल्लू सीधा करते हैं... लाशों पर राजनीति शुरू हो जाती है... फिल्मी दुनिया से जुड़े तमाम ऐसे लोग जिन्हें सितारा बनाकर हम अपने दिलों में बैठाते है... सारे बयानबाजी में लगे रहते हैं या फिर घटनाओं के अगले ही दिन वो अपनी जिन्दगी में मसरूफ हो जाते हैं। लेकिन क्यूं गुम हो जाती हैं सिसकियां, क्यूं दफ्न हो जाती है चीख की आवाज, क्यूं सूख जाते हैं आंसू, क्यूं लाशें नहीं दे पाती अपनी दबाही की गवाही... सवाल ये कि कौन समझेगा ये सब... और कौन बढ़ाए कदम इस सबके खिलाफ... फिर अचानक ज़हन में एक बात उठती है कि, हमारी सरकार है ना... पर अगले ही पल वो आवाज भी अपना जवाब खोज ही लेती है कि अगर हमारी सरकार ही संजीदा होती तो ये सब होता क्यं...?
मानते हैं कि 121 करोड़ की आबादी बहुत ज्यादा है ... सबकी सुरक्षा कर पाना थोड़ा कठिन है... और इतनी बड़ी आबादी वाले देश में हर ऐसी घटना को रोक पाना शायद मुमकिन नहीं... कहा ये भी जाता है कि ऐसे मामलों के लिए देश के हर नागरिक को जागरूक होना पड़ेगा... तो आखिर केन्द्र सरकार और सभी राज्य सरकारें अपनी इस नाकामी को खुलकर सबके सामने क्यूं नहीं रखती और क्यूं नहीं कह देती कि देश के हर नागरिक की सुरक्षा की जिम्मेदारी सिर्फ उसी की है... तब ना तो कोई सवाल किए जाएंगे और ना ही सरकार या उससे जुड़े किसी भी व्यक्ति को जवाब देने के लिए बगलें झांकनी पड़ेगी... पर सरकार ऐसा कह नहीं सकती क्यूं कि ये राज करने की नीति का सवाल है... और जरूरत वोट बैंक की है... लिहाज़ा लाशों पर भी राजनीति करने से बाज नहीं आते ये लोग...
बयानों की जलेबी परोसते ये राजनेता आम लोगों को ...तिया समझते हैं... आम लोगों को क्या समझते हैं वो शब्द थोड़ा आपत्तिजनक है इसलिए पूरा नहीं लिख पाया पर आप समझ ही गये होंगे, क्यूंकि यही हकीकत है, ऐसी आतंकवादी घटनाओं में किसी का तो सब कुछ लुट जाता है पर किसी को बैठे बिठाए कुछ मिल भी जाता है... लेकिन ये वही आम आदमी है जो इन्हें सत्ता की कुर्सी पर बैठाता है... और अगर ये आम आदमी अपने पर आ गया और इसका दिमाग थोड़ा सनक गया तो इन सफेदपोश काले लोगों को नाकों चने चबवा देगा... फिर सिर्फ हाथ मलने के अलावा कुछ नहीं बचेगा इनके पास... अच्छा तो यही रहेगा कि हर कोई अपनी जिम्मेदारी को समझे... खासकर जिनके कंधों पर ऐसी जिम्मेदारियां डाली गयी हैं... सच ये है कि मौजूदा वक्त में हर आम आदमी सरकार के क्रियाकलापों से परेशान होकर ये कह उठता है कि हमें पसंद नहीं ये राजनेता... लेकिन एक सच ये भी है कि वही आम आदमी ये भी चाहता है कि हमारे यही प्रतिनिधि इंसानी जिन्दगी की अहमियत को समझे और समाज में कुछ अच्छे बदलाव आएं... अच्छा तो यही रहेगा कि हमारे नेता गण जनता की इस आवाज को सुने और अपने भविष्य को सुधार लें वरना कल क्या होगा ये कहना ज्यादा मुश्किल नहीं है...

Thursday, July 14, 2011

ऐसा क्यूँ होता है





ऐसा क्यूँ होता है

सुबह की दहलीज़ पर, उम्मीदों के क़दम थे,
सपनों से भरे अरमान और आशाओं के मन थे.

ना था पता कल का ना ही उस इक पल का,
कि ज़मींदोज़ हो जायेंगे जो खुशियों के महल थे.

ऐसी पड़ी नापाक निगाहें दहशतगर्दों की हम पर,
कहीं चीख कहीं आंसू कहीं खून से लिपटे तन थे.

होश उड़ जाते हैं देखकर लाशों पर सियासत,
देखो बस उनको जिन अपनों के दिल नम थे.

सुबह की दहलीज़ पर, उम्मीदों के क़दम थे,
सपनों से भरे अरमान और आशाओं के मन थे...

Friday, June 17, 2011

बड़ी मुश्किल से मिलते हैं ये पल...





बड़ी मुश्किल से मिलते हैं ये पल...


खुश रहो हरदम जिंदगी के साथ,
ना निहारो राहों को ना दिन रात,

सीख लो सब कुछ मगर खुश रहो,
पर रहो वही जो अन्दर से तुम हो,

आंसुओं को ना बनाओ अपना घर
बस आशाओं से देखो इधर उधर

बिना डर राहों पर अपनी तू निकल,
थाम कर हाथ मेरा कहीं दूर चल,

             बड़ी मुश्किल से मिलते हैं ये पल...


जो होना है यहाँ वो होकर ही रहेगा,
जिंदगी में तुझे बहुत कुछ मिलेगा,

खींच कर चादर ख़ुशी के सपनों की,
रख लो सिर, याद के सिरहाने पर,

दुःख देना तो हकीकत है ज़माने की,
तू बना दे प्यारा हर आने वाला कल,

             बड़ी मुश्किल से मिलते हैं ये पल...

Monday, May 23, 2011

वो आज भी है...



वो आज भी है... 


दिल में सपनों और उम्मीदों का घर था,
जो मिल गया उसे खो ना दूं इसका डर था.

रास्ते अनजान  और मंजिल बड़ी दूर थी,
कुछ दिखता नहीं था, पर हसीं वो सफ़र था.

क़ैद कर लूं दुनिया अपनी मुट्ठी में ऐसे,
पा लूं वो सब कुछ जो मेरा रहगुज़र था,

अपना कर उसके साये को गुम हो जाऊं मैं,
खो जाऊं उसमे खूबसूरत उसका असर था.

दिल में सपनों और उम्मीदों का घर था,
जो मिल गया उसे खो ना दूं इसका डर था.


चेहरे पर उसके जो खिल जाती थी ख़ुशी,
देख कर उसे मैं भी खुश जाने किस कदर था,

उसने मुझे कभी अकेला छोड़ा नहीं ,
मैं उसके वो मेरे साथ हर कदम पर था,

कभी दूर रहकर तो कभी करीब से,
चाहा ऐसे कि सब कुछ मेरे नज़र था,

ये अलग बात है कि वो मिला नहीं मुझे,
पर उसका प्यार मुझमे कल भी अमर था.

दिल में सपनों और उम्मीदों का घर था,
जो मिल गया उसे खो ना दूं इसका डर था...

Monday, April 18, 2011

आलोचनाओं का संसार


आलोचनाओं का संसार

ये दुनिया बेहद ही जटिल है... जिसे समझ पाना शायद किसी के वश में नहीं ... और जो इसे समझ लेता है वो इससे कूच कर जाता है... जैसे ही आप दुनिया में  दाखिल होते हैं, आप घिर जाते हैं अनगिनत चीज़ों से... संस्कृति, सभ्यता, समाज , परंपरा और  रीति- रिवाज़ जैसी जाने कितनी चीज़ें हैं जो आपके इर्द गिर्द एक ऐसी दुनिया का निर्माण करती जो समझ से परे है... क्यूंकि किसकी क्या नीयत और क्या सही शक्ल है ये जान पाना और समझ पाना बड़ा ही मुश्किल हो जाता है... और यहीं से शुरू होती है जिंदगी में आगे निकल जाने की रेस ... इक ऐसी रेस जिसमें कई बातों का ख्याल भी रखना होता है कि कहीं गलती से भी कोई गलती ना हो जाए ... इन्ही सब बातों को ज़ेहन में रखकर ख्वाबों की स्लेट पर अपनी सोच की रोशनाई से कई चीज़े लिखते हैं हम... समाज की इन्हीं ऊंची ऊंची बातों के सागर में लोगों से जुडी उनकी एक और सामजिक ज़िम्मेदारी छुपी होती है... जिसे मैं आलोचना कहता हूँ... मसलन आप कितने भी गुणवान हों... आपके अन्दर चाहे कितनी भी ख़ूबियाँ क्यूँ ना हों पर आप आलोचना करने वाले इन विवेकहीन प्राणियों की जद में आने से खुद को बचा नहीं पायेंगे... 

मैं भी अपने हर एक पल से बहुत कुछ सीखने की कोशिश करता रहता हूँ... साथ ही काफी चीज़ों को अनुभव करने का भी मौका मिलता है... जिसमें व्यक्ति द्वारा व्यक्ति की हो रही आलोचना को मैं प्रमुखता से समझने का प्रयास करता हूँ... जिसे खिंचाई करना, निंदा करना, टांग खीचना जैसे भिन्न भिन्न शब्दों के तौर पर हम जानते हैं, जिसका मकसद सिर्फ और सिर्फ अपनी उपस्थिति दर्ज कराना मात्र ही रह गया है...  आलोचनाओं से भरे इस संसार की कुछ बातें अपने इस लेख - "आलोचनाओं का संसार"  के ज़रिये आप सभी से बांटने की कोशिश कर रहा हूँ... देश के जाने माने कवि रहीम दास का ये दोहा -- निंदक नियरे राखिये आँगन कुटी छवाए, बिन साबुन बिन तेल के निर्मल करे सुहाय-- जिसका मतलब अगर आप के आस पास कोई निंदक है तो आप तरक्की करेंगे... ये बात सिर्फ तब तक सही मानी जा सकती है जब तक वो निंदक आपका हितैशी हो...मौजूदा दौर की तस्वीर बदल चुकी है और आज के वक़्त में लोग आपकी आलोचना करके आपके मज़बूत इरादों को पस्त करने की जुगत में ज्यादा लगे रहते हैं... आज लोग अपनी तरक्की से खुश ना होकर दूसरों की कामयाबी से ज्यादा जलते  हैं... और यही वजह की समाज के प्रति हमारी धारणा बदलती जा रही है... भले ही हमे हर बात ज्ञातव्य ना हो पर अपने चारों और आलोचनाओं के होने का आभास ज़रूर हो जाता है... पैदा हुए नहीं कि जिंदगी की कसरत शुरू हो जाती है... जन्म अगर लड़की के रूप में हो गया तो ये समाज कोसने के अलावा कुछ करता ही नहीं... भले ही लड़कों के मुकाबले लड़कियों की संख्या कम हो फिर भी लड़के को समाज में जितना अहम् मान लिया गया है, उतना लड़कियों को नहीं... मतलब साफ़ है , कि बातों का आधार वही है "आलोचना"... दिक्कत लड़कों के साथ भी कम नहीं है , उन्हें भी इन आलोचनाओं के दंश को झेलना पड़ता है... बात तो ये है कि इंसान पृथ्वी ग्रह पर अवतरित एक सामाजिक जानवर है, बस जिसके पास भाषा है, संस्कृति है, थोड़ी बहुत समझदारी है जिसके चलते धरती के बाकी जानवरों से इंसान रुपी ये जानवर अलग आँका जाता है... लेकिन अपनी अच्छी सोच के अनुरूप कुछ अच्छा कर पाने में असमर्थ सा हो जाता है... क्यूंकि लोग अडंगा डालने से बाज़ नहीं आते... थोडा उम्र बढ़ी नहीं कि शुरू हो जाती है परिवार समेत  पड़ोसियों की टिप्पणियां ... जहाँ पारिवारिक लोग --- क्या करोगे अपनी ज़िंदगी में ... कुछ पढ़ लिख लो जीवन संवर जायेगा... तुमने देखा नहीं उनका लड़का पढ़ लिख के कितना आगे निकल गया... तुम तो मेरी समाज में नाक कटवा दो... कहीं मुह दिखाने के लायक मत छोड़ना हमे... जैसे शब्दों का इस्तेमाल करते नज़र आते हैं... वहीँ पडोसी -- अरे ये सब क्या कर रहे हो आज कल... कुछ कायदे के काम में मन लगाओ... ये देखो हीरो बनने चले हैं... अरे ओ गवैया ... दिन भर बस आवारा गर्दी ... अरे आज तो हमने उनके लड़के को वहां देखा था--- जैसी कई बातों को बोलकर अपना वक़्त काटते हैं और आलोचना पर आलोचना करने में जुटे रहते हैं ... जैसे जैसे हम उम्र के अलग अलग पड़ाव पर पहुँचते जाते हैं लोगों द्वारा हो रही आलोचनाओं की तस्वीर भी बदलती जाती है... ये सब लिखने के पीछे मेरी सिर्फ एक ही वजह है... जो मैंने समाज से सीखी है, कि अगर दिल में कुछ करने की ठान ली है या फिर कोई ख्वाब सजा लिया है... तो फिर इन आलोचनाओं के संसार से विरक्त हो कर अपने आस पास विश्वास और हिम्मत की एक नयी दुनिया कायम करनी ही होगी... लेकिन मज़बूत इरादों के साथ ये भी ध्यान रहे कि हमारे इस काम से किसी को भी कोई परेशानी ना हो... एक कहावत है कि --- लाठी उतनी ही दूर तक घुमानी चाहिए जहाँ तक किसी को चोट  न पहुंचे --- फिर क्या आराम से लाठी घुमाओं... लाठी घुमाना कोई अपराध थोड़े ना है... पर हाँ आलोचना करने वाले यहाँ भी पहुँच सकते हैं... जैसे ये क्या बेकार के काम में लगे हो जाओ कुछ और करो, पता नहीं लाठी घुमाने से क्या हासिल करेंगे... शायद इन लोगों को ये नहीं पता की लाठी घुमाना भी एक कला है... जब लोग थूकने जैसे कामों में रिकॉर्ड बनाकर गिनीज़ बुक में अपना नाम दर्ज करवा सकते हैं तो ये क्यूँ नहीं... मेरी बातें थोड़ी अजीब ज़रूर लग रही हो लेकिन मतलब साफ  है कि आलोचनाओं को छोड़कर अपनी मंजिल पाने में हमे जुट जाना चाहिए... अब इस दुनिया में अगर जन्म लिया है तो समाज के इन ठेकेदारों की तो सुननी ही होगी पर करो वही जो मन करे साथ ही ये भी याद रहे कि किसी का अहित ना हो... हमारी सोच यही होनी चाहिए कि अपने हौसलों को कभी पस्त नहीं होने देंगे और  निरंतर मज़बूत जज्बे के साथ अपने लक्ष्य की ओर अग्रसर रहेंगे फिर चाहे कितनी भी मुश्किलातें क्यूँ ना पेश आयें...  हमें निंदा और आलोचनाओं के दलदल में न फंसते हुए अपने में नित नए सुधार करके अपने को योग्य और कामयाब बानाने की ओर ध्यान केन्द्रित करना होगा...

Thursday, April 14, 2011

ऐसा शासन नहीं चलेगा




ऐसा शासन नहीं चलेगा

देश में व्याप्त बुराई है,
यहाँ घूसखोर कसाई हैं.

हर काम के नाम पर पैसा लेते,
करते ख़ूब कमाई हैं,

जगह जगह गंदगी फैली,
नहीं कहीं सफाई है,

फिर भी नगर पालिका से, 
लोगों ने इक आस लगाई है,

ग्राहकों के पैसों पर,
कम्पनिओं ने आँख लगाई है,

लूट के पैसा लोगों का,
करते अपनी भरपाई हैं,

ऐसी ही गन्दी तस्वीर ,
अपने नेताओं की पाई है,

बनते भारत मां का अंग,
करवाते हर दम संसद भंग,

जब भी इनको देखो तुम,
बस कुर्सी की ही लड़ाई है,

मंदिर और मस्जिद को लेकर,
बहस इन्होने कराई है,

लड़वाते हिन्दू मुस्लिम को,
जबकि हम सब भाई हैं,

देश को बेच खाने की लगता,
क़सम इन्होने खाई है,

गोली इनको ना तुम मारो,
ना सूली पे इन्हें चढ़ाओ,

कुर्सी इनसे छीन कर,
भारत मां की लाज बचाओ,

वरना ऐसे शासक के हाथों में,
अपना देश मरेगा,

ऐसा शासन इस देश में,
नहीं चलेगा नहीं चलेगा नहीं चलेगा...

Monday, April 11, 2011

मायावती का "समानता कार्ड"


मायावती का "समानता कार्ड"

"सामाजिक समानता के लिए बसपा को सत्ता में लायें" ये कहना है उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री और बसपा सुप्रीमों मायावती का... तमिलनाडु के चुनावी समर में वोटों को भुनाने की जुगत में लगी मायावती कुछ ऐसी ही बातें करती नज़र आ रही हैं...मायावती इन्हीं सब बातों के दम पर उत्तर प्रदेश की तरह बाकी राज्यों में भी अपना परचम लहराना चाहती हैं... लेकिन सामजिक समानता की बात कहने वाली ये दलित नेता शायद भूल गयीं हैं कि उत्तर प्रदेश में दलित फैक्टर ने ही इनको सी.एम की कुर्सी तक पहुँचाया है... और मायावती का दलित फैक्टर बसपा की राजनीति में आज भी किस क़दर रचा बसा है, ये किसी से छुपा नहीं है... फिर आखिर मायावती कौन सी सामजिक समानता कि बात कर रहीं हैं... उत्तर प्रदेश से जुड़ाव होने के कारण प्रदेश की राजनीति की थोड़ी बहुत समझ मुझे भी है... दलित उत्थान के कामों में दिल से जुटी रहने वाली मायावती अम्बेडकर ग्राम बना कर और ऐसी ही कई कल्याणकारी योजनाओं को आधार बनाकर किसको मुख्य धारा से जोड़ना चाहती हैं  और क्या कुछ करना चाहती हैं ,ये सब जानते हैं... अब बात यहाँ पर ये समझ नहीं आती कि मायावती, मुख्यमंत्री किसी सम्पूर्ण दलित प्रदेश की हैं या फिर ऐसे प्रदेश की जिसकी आबादी देश में सबसे ज्यादा है और जहाँ हर जाति और वर्ण के लोग वास करते हैं... जाति के नाम पर पहले से ही विभेद करने वाली मुख्यमंत्री बसपा के ज़रिये कौन सी सामजिक समानता की बयार चलाना चाहती हैं, जबकि बसपा के मूल से ही जातिगत राजनीति की बू हमेशा ही आती रहती है... मायावती को कोई ये याद दिलाये कि जब इन्होने सवर्णों का साथ निभाना शुरू किया तभी  प्रदेश के हर वर्ग के लोगों में उनकी छवि कुछ सुधार हुआ... राज्य में हर वर्ग के लोग रहते हैं और सही मायने में अगर सामाजिक समानता की बात की जाये तो उत्थान का आधार व्यक्ति की जाति नहीं बल्कि आर्थिक स्थिति होना चाहिए... जैसे जो जितना आर्थिक रूप से पिछड़ा हो, उसकी उतनी ही मदद की जाये साथ ही हर तरह की ज़रुरत की आपूर्ति करके उसे मुख्य धारा से जोड़ा जाये... अगर मायावती के सामाजिक समानतावाद की तह में जायें तो यही पता चलेगा की दलितों की नेता और दलित की बेटी जैसे उपनामों से ख्याति पाने वाली उत्तर प्रदेश की इन मुख्यमंत्री के कामों से खुद कई दलित लोग भी परेशान हैं, क्यूंकि अपने जन्मदिन जैसे मौकों पर नोटों की माला पहनने वाली मायावती को धन की ज़ुबान शायद  ज्यादा समझ आती है... प्रदेश में अपराधों में थोड़ी बहुत कमी भले ही आई  हो पर पूरी तरह से अभी भी लगाम कसी नहीं जा पाई है... राज्य में विकास कहाँ कहाँ हो रहा है, ये किसी से छुपा नहीं है... और विकास की रफ़्तार क्या है इसकी तस्वीर आपको आसानी से देखने को मिल जायेगी...  राज्य कर्मचारियों को कितनी सुविधाओं से लैस किया जा रहा है, इसका अंदाजा आप राज्य कर्मचारियों के व्याकुल ह्रदय से निकली वेदनाओं की आवाजों से साफ़ लगा सकते हैं... तो कुल मिलाकर इन सारी बातों का मूल यही निकलता है, कि  मायावती बाहरी राज्यों की बजाये अपने मूल प्रदेश में अपनी और पार्टी की साफ़ छवि बनाने का प्रयास करें... साथ ही सामाजिक समानता की जगह सामाजिक सुधारों की ओर ध्यान ज्यादा दें... हो सकता है कि सामजिक सुधारों से ही समाज में समानता आ जाये...

Thursday, April 7, 2011

अन्ना बनाम सरकार


अन्ना बनाम सरकार 


भ्रष्टाचार को रोकने में ऐसी डूबी सरकार,
कि डूब गए खुद ही देश के तारणहार,


देश के तारणहार चलायें कैसे इस देश को,
भरपूर घोटालों से जुड़े हों जब इनके ही तार,


सोचा खत्म हो कहीं से भ्रष्टाचार की आंधी,
अन्ना हजारे बनके आये ऐसे में छोटे गाँधी,


छोटे गांधी ने चलाई स्वच्छ समाज की बयार,
हिल गए गुर्गे सारे और हिल गयी सरकार,


सहमी और डरी सी सत्ता वाले आखिर माने,
बातचीत की मेज पर आये अन्ना से डरने वाले...

Thursday, March 10, 2011

देश का बदलता परिवेश


देश का बदलता परिवेश

राष्ट्र का स्वरुप हुआ कितना कुरूप, 
आके पश्चिम कि सभ्यता ने पैर जो पसारे हैं.

कल तक जिसे हम बुरी चीज़ मानते थे,
आज देखो बने सारे फैशन हमारे हैं.

माता और पिता का जो मान हुआ करता था, 
आज सारा आदर सम्मान वो किनारे है.

भारत की शान खोके खुशियों में झूमते हैं,
अपने को मानते ये भारत के प्यारे हैं...

इंसान बनाम जानवर




इंसान बनाम जानवर

एक बार हमने देखा एक कुत्ते कार में,
उसी वक़्त लगे हम अपने को मारने,


हमने कहा देखो ज़रा कुत्ते के ठाठ,
इसके आगे हमारी जिंदगी तो लगती है ख़ाक ,


ऐ सी लगी कार में ये बैठा है कुत्ता होके,
होना चाहिए बाहर जिसे वो तो अन्दर से भौंके,

अन्दर बैठा चाट रहा था वो मालकिन के गाल को,
मालकिन भी सोहला रही थी अपने कुत्ते के बाल को,


खा रहा था वो मालकिन के हाथ से बिस्कुट और ब्रेड,
ये देख देख कर बाहर हम तो हो रहे थे डेड,


इतने में एक लंगड़े भिखारी ने कार की खिड़की खटखटाई,
तो कार के अन्दर से गर्जन भरी आवाज़ बाहर आई,


कि आ जाते हो जब तब देखो भीख तुम मांगने,
देखी नहीं कार रुकते लगे खिड़की झाँकने,


फिर कुछ ऐसा देख कर मेरी आँखें रह गयी दंग ,
खोल कर दरवाज़ा कार का मालकिन चल दी कुत्ते के संग,


फिर हमने सोचा कि क्या ज़माना है,
बिस्कुट और ब्रेड कुत्ते खाते हैं,


और इंसान यहाँ दो वक़्त की रोटी को तरस जाते हैं,
फिर हमने कहा की अच्छा है भगवान,


बहुत किस्मती है वो कुत्ता
जो न बना इंसान, जो न बना इंसान, जो न बना इंसान...

क्या दो घूँट मिलेगा

क्या दो घूँट मिलेगा




"क्या दो घूँट मिलेगा" ... मेरे अनुभवों की हकीकत भरी वो कहानी है, जो इंसान की ज़रूरत और साधनों की अनापूर्ति को पूरी तरह से बयां करती है... मैं दिल्ली में एक हिंदी खबरिया चैनल में काम करता हूँ... एक वाकये ने मुझे जिंदगी के मायने की समझ कराई... मुझे याद है, मैं ऑफिस से अपने घर वापस लौट रहा था... जो कि लाजपत नगर में है...मैं घर के पास पहुँचने वाला ही था कि अचानक मुझे याद आया कि मेरी जेब में पैसे नहीं थे... चूँकि मैं ऑफिस से थका मांदा आ रहा था, तो प्यास लगना भी लाज़मी थी... मौसम भी गर्मी का था लिहाज़ा प्यास भी अपनी चरम पर थी... लेकिन पैसे पहले ही चाहिए थे सो मैं स्वचलित पैसा दात्री यन्त्र यानी ऐटीएम की तरफ बढ़ गया... ऐटीएम के कमरे में घुसते ही मुझे एक सुखद अहसास की अनुभूति हुई... क्यूँ कि अन्दर ऐ सी जो लगा हुआ था... मैं पैसा निकाल ही रहा था कि अचानक मेरी नज़र साइड में रखी ठन्डे पानी कि बोतल पर पड़ी... मैंने भी बेशर्म होकर वहां तैनात सुरक्षाकर्मी से पूछ ही लिया कि क्या मैं पानी कि दो घूँट पी सकता हूँ... लेकिन मुझे जो उत्तर मिला उसने मेरे दिलो दिमाग में गुस्से लहर दौड़ा दी... सुरक्षाकर्मी ने साफ़ शब्दों में मुझसे कहा कि वो पानी किसी भी कीमत पर नहीं दे सकता... क्यूँ कि उसे पानी बेहद दूर से लाना पड़ता है... और उसे पूरी रात उन्ही दो बोतलों के सहारे काटनी हैं...लिहाज़ा वो पानी कि एक बूँद भी किसी दुसरे पर खर्च नहीं कर सकता... इस सब से मुझे गुस्सा तो बहुत आया, जो कि शायद उस वक़्त आना भी लाज़मी था... लेकिन उसकी भी लाचारी मुझे समझ में आ रही थी... मैंने बताया कि मैं दिल्ली में रहता हूँ... इसीलिए आपको बता दूं कि कमोबेश ये हाल राजधानी के हर इलाके का ही है... पीने के पानी कि किल्लत ने यहाँ रहने वाले लोगों को मजबूर कर दिया है कि वो किसी प्यास से मर रहे इंसान को भी दो घूँट पानी न पिलाये... दिल्ली की जनसँख्या लगभग साढ़े बारह करोड़ है... यहाँ के कई इलाके ऐसे है जहाँ पानी ठीक ठाक आता है... कई ऐसे इलाके हैं, जहाँ पानी आता है तो इतना कम कि ठीक से उपलब्ध हो जाए तो बड़ी बात है... और कुछ इलाके तो ऐसे हैं जहाँ पानी तो भारी मात्रा में आता है लेकिन उसे पीना तो दूर उससे मुंह तक धोना मुहाल है क्यूंकि उसका इस्तेमाल करना ज़हर के इस्तेमाल के बराबर ही है... जो पॉश इलाके हैं उनकी सोसाइटी में अपने पम्प लगे हुए हैं लिहाज़ा उन्हें कम ही दिक्कत होती है लेकिन आम लोगों से भरी राजधानी में आम लोग ही पानी जैसी कई सारी दिक्कतों से झूझ रहे हैं... चलिए थोडा पीछे के दौर में ले चलते हैं आपको... जब पीने के पानी के लिए लोग हैण्ड पम्प का इस्तेमाल किया करते थे ... लेकिन मौजूदा वक़्त में शायद ही हैंडपंप देखने को मिले और अगर मिलेंगे भी तो इक्का दुक्का... दिल्ली में पीने के पानी कि कितनी ज़रूरत है इस बात का अंदाजा राजधानी में हर गली, चौराहे और रोड पर खड़े ठन्डे पानी के ठेलों से लगाया जा सकता है, जिन पर लिखा होता है "रेफ्रिजरेटर का ठंडा पानी" ... और अगर इन पानी के ठेलों कि गिनती कि जाए और इनसे पानी खरीद कर पीने वालों का आंकड़ा ढूंडा जाये तो पता चल जायेगा कि पूरे दिन में राजधानी में लोग करोंड़ों रूपये का पानी खरीद कर पीते हैं...लेकिन बात ये है कि क्या यही सोल्यूशन हैं राजधानी में पीने के पानी कि किल्लत को दूर करने का... तो सवाल ये उठता है कि आखिर कौन ठीक करेगा इन हालातों को... अब तो आप भी समझ गए होंगे कि पीने का पानी कितना कीमती है... एक छोटी सी घटना ने मेरे ज़हन में इस बात को साफ़ कर दिया कि जब साधन सीमित हों और ज़रूरतमंद कई तो हश्र आखिर क्या होता है... एक छोटी सी घटना ने तो मुझे इतना कुछ लिखने पर मजबूर कर दिया लेकिन ऐसा आपके साथ भी कई बार हुआ होगा जब आपके अंदर से यही आवाज़ आई होगी कि "" क्या दो घूँट मिलेगा"" और उत्तर तो आप खुद ही जानते हैं................