Thursday, March 10, 2011

देश का बदलता परिवेश


देश का बदलता परिवेश

राष्ट्र का स्वरुप हुआ कितना कुरूप, 
आके पश्चिम कि सभ्यता ने पैर जो पसारे हैं.

कल तक जिसे हम बुरी चीज़ मानते थे,
आज देखो बने सारे फैशन हमारे हैं.

माता और पिता का जो मान हुआ करता था, 
आज सारा आदर सम्मान वो किनारे है.

भारत की शान खोके खुशियों में झूमते हैं,
अपने को मानते ये भारत के प्यारे हैं...

इंसान बनाम जानवर




इंसान बनाम जानवर

एक बार हमने देखा एक कुत्ते कार में,
उसी वक़्त लगे हम अपने को मारने,


हमने कहा देखो ज़रा कुत्ते के ठाठ,
इसके आगे हमारी जिंदगी तो लगती है ख़ाक ,


ऐ सी लगी कार में ये बैठा है कुत्ता होके,
होना चाहिए बाहर जिसे वो तो अन्दर से भौंके,

अन्दर बैठा चाट रहा था वो मालकिन के गाल को,
मालकिन भी सोहला रही थी अपने कुत्ते के बाल को,


खा रहा था वो मालकिन के हाथ से बिस्कुट और ब्रेड,
ये देख देख कर बाहर हम तो हो रहे थे डेड,


इतने में एक लंगड़े भिखारी ने कार की खिड़की खटखटाई,
तो कार के अन्दर से गर्जन भरी आवाज़ बाहर आई,


कि आ जाते हो जब तब देखो भीख तुम मांगने,
देखी नहीं कार रुकते लगे खिड़की झाँकने,


फिर कुछ ऐसा देख कर मेरी आँखें रह गयी दंग ,
खोल कर दरवाज़ा कार का मालकिन चल दी कुत्ते के संग,


फिर हमने सोचा कि क्या ज़माना है,
बिस्कुट और ब्रेड कुत्ते खाते हैं,


और इंसान यहाँ दो वक़्त की रोटी को तरस जाते हैं,
फिर हमने कहा की अच्छा है भगवान,


बहुत किस्मती है वो कुत्ता
जो न बना इंसान, जो न बना इंसान, जो न बना इंसान...

क्या दो घूँट मिलेगा

क्या दो घूँट मिलेगा




"क्या दो घूँट मिलेगा" ... मेरे अनुभवों की हकीकत भरी वो कहानी है, जो इंसान की ज़रूरत और साधनों की अनापूर्ति को पूरी तरह से बयां करती है... मैं दिल्ली में एक हिंदी खबरिया चैनल में काम करता हूँ... एक वाकये ने मुझे जिंदगी के मायने की समझ कराई... मुझे याद है, मैं ऑफिस से अपने घर वापस लौट रहा था... जो कि लाजपत नगर में है...मैं घर के पास पहुँचने वाला ही था कि अचानक मुझे याद आया कि मेरी जेब में पैसे नहीं थे... चूँकि मैं ऑफिस से थका मांदा आ रहा था, तो प्यास लगना भी लाज़मी थी... मौसम भी गर्मी का था लिहाज़ा प्यास भी अपनी चरम पर थी... लेकिन पैसे पहले ही चाहिए थे सो मैं स्वचलित पैसा दात्री यन्त्र यानी ऐटीएम की तरफ बढ़ गया... ऐटीएम के कमरे में घुसते ही मुझे एक सुखद अहसास की अनुभूति हुई... क्यूँ कि अन्दर ऐ सी जो लगा हुआ था... मैं पैसा निकाल ही रहा था कि अचानक मेरी नज़र साइड में रखी ठन्डे पानी कि बोतल पर पड़ी... मैंने भी बेशर्म होकर वहां तैनात सुरक्षाकर्मी से पूछ ही लिया कि क्या मैं पानी कि दो घूँट पी सकता हूँ... लेकिन मुझे जो उत्तर मिला उसने मेरे दिलो दिमाग में गुस्से लहर दौड़ा दी... सुरक्षाकर्मी ने साफ़ शब्दों में मुझसे कहा कि वो पानी किसी भी कीमत पर नहीं दे सकता... क्यूँ कि उसे पानी बेहद दूर से लाना पड़ता है... और उसे पूरी रात उन्ही दो बोतलों के सहारे काटनी हैं...लिहाज़ा वो पानी कि एक बूँद भी किसी दुसरे पर खर्च नहीं कर सकता... इस सब से मुझे गुस्सा तो बहुत आया, जो कि शायद उस वक़्त आना भी लाज़मी था... लेकिन उसकी भी लाचारी मुझे समझ में आ रही थी... मैंने बताया कि मैं दिल्ली में रहता हूँ... इसीलिए आपको बता दूं कि कमोबेश ये हाल राजधानी के हर इलाके का ही है... पीने के पानी कि किल्लत ने यहाँ रहने वाले लोगों को मजबूर कर दिया है कि वो किसी प्यास से मर रहे इंसान को भी दो घूँट पानी न पिलाये... दिल्ली की जनसँख्या लगभग साढ़े बारह करोड़ है... यहाँ के कई इलाके ऐसे है जहाँ पानी ठीक ठाक आता है... कई ऐसे इलाके हैं, जहाँ पानी आता है तो इतना कम कि ठीक से उपलब्ध हो जाए तो बड़ी बात है... और कुछ इलाके तो ऐसे हैं जहाँ पानी तो भारी मात्रा में आता है लेकिन उसे पीना तो दूर उससे मुंह तक धोना मुहाल है क्यूंकि उसका इस्तेमाल करना ज़हर के इस्तेमाल के बराबर ही है... जो पॉश इलाके हैं उनकी सोसाइटी में अपने पम्प लगे हुए हैं लिहाज़ा उन्हें कम ही दिक्कत होती है लेकिन आम लोगों से भरी राजधानी में आम लोग ही पानी जैसी कई सारी दिक्कतों से झूझ रहे हैं... चलिए थोडा पीछे के दौर में ले चलते हैं आपको... जब पीने के पानी के लिए लोग हैण्ड पम्प का इस्तेमाल किया करते थे ... लेकिन मौजूदा वक़्त में शायद ही हैंडपंप देखने को मिले और अगर मिलेंगे भी तो इक्का दुक्का... दिल्ली में पीने के पानी कि कितनी ज़रूरत है इस बात का अंदाजा राजधानी में हर गली, चौराहे और रोड पर खड़े ठन्डे पानी के ठेलों से लगाया जा सकता है, जिन पर लिखा होता है "रेफ्रिजरेटर का ठंडा पानी" ... और अगर इन पानी के ठेलों कि गिनती कि जाए और इनसे पानी खरीद कर पीने वालों का आंकड़ा ढूंडा जाये तो पता चल जायेगा कि पूरे दिन में राजधानी में लोग करोंड़ों रूपये का पानी खरीद कर पीते हैं...लेकिन बात ये है कि क्या यही सोल्यूशन हैं राजधानी में पीने के पानी कि किल्लत को दूर करने का... तो सवाल ये उठता है कि आखिर कौन ठीक करेगा इन हालातों को... अब तो आप भी समझ गए होंगे कि पीने का पानी कितना कीमती है... एक छोटी सी घटना ने मेरे ज़हन में इस बात को साफ़ कर दिया कि जब साधन सीमित हों और ज़रूरतमंद कई तो हश्र आखिर क्या होता है... एक छोटी सी घटना ने तो मुझे इतना कुछ लिखने पर मजबूर कर दिया लेकिन ऐसा आपके साथ भी कई बार हुआ होगा जब आपके अंदर से यही आवाज़ आई होगी कि "" क्या दो घूँट मिलेगा"" और उत्तर तो आप खुद ही जानते हैं................