Wednesday, July 27, 2011

किसी का गया और किसी को मिला




किसी का गया और किसी को मिला


धमाका चाहे महाराष्ट्र में हो, उत्तर प्रदेश में हो, गुजरात में हो , मध्यप्रदेश में हो या फिर देश के किसी अन्य राज्य में... इनमें मरने वाला सिर्फ एक आम हिन्दुस्तानी होता है... धमाके की लपटें ना तो इनकी जाति पूछती हैं ना हैसियत और ना ही उनकी विचारधारा... ऐसे में सबसे अहम सवाल यही कि आखिर ये कब थमेगा और दूसरा कि लोकतंत्र की आत्मा का खून आखिर कब तक होगा रहेगा... सिर्फ दो ही सवाल नहीं बल्कि कई सवाल छोड़ जाते हैं ऐसे आतंकवादी धमाके... वहीं ऐसी घटनाओं के बाद कौन सी विचारधारा ऐसे मामलों में काम करती है, ये असली मुद्दा है...
ऐसी दर्दनाक घटनाओं का असर सबसे ज्यादा किस पर पड़ता है ये कह पाना बिल्कुल भी मुश्किल नहीं है... पर कौन लेगा इस सबकी जिम्मेदारी ये कोई नहीं जानता क्योंकि राजनेता अपना उल्लू सीधा करते हैं... लाशों पर राजनीति शुरू हो जाती है... फिल्मी दुनिया से जुड़े तमाम ऐसे लोग जिन्हें सितारा बनाकर हम अपने दिलों में बैठाते है... सारे बयानबाजी में लगे रहते हैं या फिर घटनाओं के अगले ही दिन वो अपनी जिन्दगी में मसरूफ हो जाते हैं। लेकिन क्यूं गुम हो जाती हैं सिसकियां, क्यूं दफ्न हो जाती है चीख की आवाज, क्यूं सूख जाते हैं आंसू, क्यूं लाशें नहीं दे पाती अपनी दबाही की गवाही... सवाल ये कि कौन समझेगा ये सब... और कौन बढ़ाए कदम इस सबके खिलाफ... फिर अचानक ज़हन में एक बात उठती है कि, हमारी सरकार है ना... पर अगले ही पल वो आवाज भी अपना जवाब खोज ही लेती है कि अगर हमारी सरकार ही संजीदा होती तो ये सब होता क्यं...?
मानते हैं कि 121 करोड़ की आबादी बहुत ज्यादा है ... सबकी सुरक्षा कर पाना थोड़ा कठिन है... और इतनी बड़ी आबादी वाले देश में हर ऐसी घटना को रोक पाना शायद मुमकिन नहीं... कहा ये भी जाता है कि ऐसे मामलों के लिए देश के हर नागरिक को जागरूक होना पड़ेगा... तो आखिर केन्द्र सरकार और सभी राज्य सरकारें अपनी इस नाकामी को खुलकर सबके सामने क्यूं नहीं रखती और क्यूं नहीं कह देती कि देश के हर नागरिक की सुरक्षा की जिम्मेदारी सिर्फ उसी की है... तब ना तो कोई सवाल किए जाएंगे और ना ही सरकार या उससे जुड़े किसी भी व्यक्ति को जवाब देने के लिए बगलें झांकनी पड़ेगी... पर सरकार ऐसा कह नहीं सकती क्यूं कि ये राज करने की नीति का सवाल है... और जरूरत वोट बैंक की है... लिहाज़ा लाशों पर भी राजनीति करने से बाज नहीं आते ये लोग...
बयानों की जलेबी परोसते ये राजनेता आम लोगों को ...तिया समझते हैं... आम लोगों को क्या समझते हैं वो शब्द थोड़ा आपत्तिजनक है इसलिए पूरा नहीं लिख पाया पर आप समझ ही गये होंगे, क्यूंकि यही हकीकत है, ऐसी आतंकवादी घटनाओं में किसी का तो सब कुछ लुट जाता है पर किसी को बैठे बिठाए कुछ मिल भी जाता है... लेकिन ये वही आम आदमी है जो इन्हें सत्ता की कुर्सी पर बैठाता है... और अगर ये आम आदमी अपने पर आ गया और इसका दिमाग थोड़ा सनक गया तो इन सफेदपोश काले लोगों को नाकों चने चबवा देगा... फिर सिर्फ हाथ मलने के अलावा कुछ नहीं बचेगा इनके पास... अच्छा तो यही रहेगा कि हर कोई अपनी जिम्मेदारी को समझे... खासकर जिनके कंधों पर ऐसी जिम्मेदारियां डाली गयी हैं... सच ये है कि मौजूदा वक्त में हर आम आदमी सरकार के क्रियाकलापों से परेशान होकर ये कह उठता है कि हमें पसंद नहीं ये राजनेता... लेकिन एक सच ये भी है कि वही आम आदमी ये भी चाहता है कि हमारे यही प्रतिनिधि इंसानी जिन्दगी की अहमियत को समझे और समाज में कुछ अच्छे बदलाव आएं... अच्छा तो यही रहेगा कि हमारे नेता गण जनता की इस आवाज को सुने और अपने भविष्य को सुधार लें वरना कल क्या होगा ये कहना ज्यादा मुश्किल नहीं है...

Thursday, July 14, 2011

ऐसा क्यूँ होता है





ऐसा क्यूँ होता है

सुबह की दहलीज़ पर, उम्मीदों के क़दम थे,
सपनों से भरे अरमान और आशाओं के मन थे.

ना था पता कल का ना ही उस इक पल का,
कि ज़मींदोज़ हो जायेंगे जो खुशियों के महल थे.

ऐसी पड़ी नापाक निगाहें दहशतगर्दों की हम पर,
कहीं चीख कहीं आंसू कहीं खून से लिपटे तन थे.

होश उड़ जाते हैं देखकर लाशों पर सियासत,
देखो बस उनको जिन अपनों के दिल नम थे.

सुबह की दहलीज़ पर, उम्मीदों के क़दम थे,
सपनों से भरे अरमान और आशाओं के मन थे...