ऐसा क्यूँ होता है
सुबह की दहलीज़ पर, उम्मीदों के क़दम थे,
सपनों से भरे अरमान और आशाओं के मन थे.
ना था पता कल का ना ही उस इक पल का,
कि ज़मींदोज़ हो जायेंगे जो खुशियों के महल थे.
ऐसी पड़ी नापाक निगाहें दहशतगर्दों की हम पर,
कहीं चीख कहीं आंसू कहीं खून से लिपटे तन थे.
होश उड़ जाते हैं देखकर लाशों पर सियासत,
देखो बस उनको जिन अपनों के दिल नम थे.
सुबह की दहलीज़ पर, उम्मीदों के क़दम थे,
सपनों से भरे अरमान और आशाओं के मन थे...
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