Sunday, October 28, 2012

ये पब्लिक है सब जानती है.!



ये पब्लिक है सब जानती है.!

कसरत-2014... यूपीएएनडीए या फिर कोई और.!

लोकसभा चुनाव 2014 से पहले प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने अपनी सरकार का फेशियल किया है। केंद्रीय मंत्रिमंडल में तीसरे और अब तक के सबसे बड़े फेरबदल में सात नए कैबिनेट मंत्री और 15 नए राज्य मंत्रियों (दो स्वतंत्र प्रभार समेत) को सरकार में शामिल कर प्रधानमंत्री ने नई टीम बना ली है। ऐसा माना जा रहा है कि नए चेहरों और कई प्रमुख विभागों में प्रधानमंत्री का ये अंतिम फेरबदल है।
जिन सात कैबिनेट मंत्रियों को राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने शपथ दिलाई, उनमें के रहमान खान और चंद्रेश कुमारी कटोच नए चेहरे हैं, जबकि पांच राज्य मंत्रियों का ओहदा बढ़ाकर उन्हें कैबिनेट मंत्री का दर्जा दिया गया। पंजाब से मनीष तिवारी और आंध्र प्रदेश से अभिनेता से नेता बने चिरंजीवी पहली बार मंत्री बने हैं। दोनों को स्वतंत्र प्रभार का राज्य मंत्री बनाया गया है। राज्य मंत्रियों में शशि थरूर की फिर वापसी हुई हुई।
लंबे समय से भ्रष्टाचार समेत कई अन्य मामलों में विपक्षी हमलों से जूझ रहे प्रधानमंत्री ने अपने पांच राज्य मंत्रियों को कैबिनेट का ओहदा देकर उनके अनुभव को सरकार के लिए कारगर साबित करने की कोशिश की है। इतने बदलावों के बाद भी यूपीए-2 का भविष्य क्या होगा न तो ये तय है, और न ही ये कि 2014 में यूपीए की वापसी हो पाएगी. वैसे भी सरकारें आना जाना लोकतंत्र का नियम है. किसी सरकार ने कुछ अच्छा कर दिया तो उसके इंकम्बैंट होने के मौके बन जाते हैं, वरना एंटी इन्कम्बैंसी का फायदा उठाते हुए विपक्ष के हाथों में सत्ता की बागडोर चली जाती है. लेकिन जब सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों पर आरोप लग रहे हों, तब देश का भविष्य कैसा होगा, सवाल ये अहम हो जाता है. लेकिन उसके फौरन बाद दिमाग में आता है कि जनता की सोच पहले क्या थी और अब वो कैसे सोच रही है.? साथ ही भविष्य के चुनावों को लेकर उसकी मन:स्थिति आखिर क्या होगी.? मामला बेहद गंभीर और मकड़जाल जैसा है. यानि जितना घुसे उतना ही फंसते जाएंगे.
ऐसे में किसी ना किसी पर तो भरोसा करना ही पड़ेगा. देखा जाय तो मूल रुप से दो ही बड़े गठबंधन नज़र आते हैं. यूपीए और एनडीए. लेफ्ट ने यूपीए से नाता तोड़ने के बाद अपनी राहें अलग कर रखी हैं, लेकिन भविष्य किसके साथ तलाशने की जुगत चल रही है पता नहीं. इसके अलावा तीसरे और चौथे मोर्चे का स्परुप भी फिलहाल स्पष्ट है नहीं. मतलब साफ है कि भविष्य में या तो यूपीए की फिर से वापसी या  एनडीए में ही जोड़ तोड़ के आसार नज़र आते हैं. भले ही देश के तमाम बड़े राजनीतिक दल अपनी अपनी बातें कर रहे हो लेकिन अटकलों का बाज़ार तो यूपीए और एनडीए से ही गुलज़ार है. अब सवाल ये बनता है कि आखिर किसको कैसे फायदा मिल सकता है.
बात अगर यूपीए की हो, तो यूपीए के दामन में भ्रष्टाचार के ऐसे दाग लगे हैं कि उसे इतनी जल्दी छुटा पाना उसके लिए आसान नहीं है, लेकिन सरकार की कार्यप्रणाली से देश की जनता त्राहिमाम त्राहिमाम ज़रुर कर रही है. हसन अली हवाला घोटाला, कैश फॉर वोट मामला, सीडब्ल्यूजी घोटाला, 2जी घोटाला, कोलगेट मामला, टाट्रा ट्रक घोटाला, इसरो-देवास डील, तमाम सरकारी योजनाओं में अनियमितताओं के आरोपों से दो चार होने वाली कांग्रेस नेतृत्व वाली यूपीए सरकार की कमर बढ़ी महंगाई ने भी थोड़ी सी झुका दी है. केंद्र के साथ साथ कई राज्यों में भी कांग्रेस सत्ता में हैं लेकिन कहीं से भी कांग्रेस के लिए कोई बड़ी राहत की ख़बर नहीं आ रही है.
हालही में कुछ मसलों पर सरकार के फैसलों के चलते सरकार की अहम सहयोगी के तौर पर जानी जा रही टीएमसी और झारखंड विकास मोर्चा ने तो यूपीए से किनारा कर ही लिया है और कुछ सहयोगी अंदर ही अंदर गुस्से को छुपाए बैठे हैं लेकिन उनकी तरफ से भी यूपीए को कब झटका मिल जाए कुछ कहा नहीं जा सकता. खास कर एनसीपी और डीएमके की यूपीए से तल्खी जग ज़ाहिर है. दो राज्यों में इसी साल के अंत तक विधानसभा चुनाव संपन्न होने है. और दोनों में ही कांग्रेस का मुख्य मुकाबला सत्ताधारी बीजेपी से है. देखना दिलचस्प होगा कि राष्ट्रीय मुद्दे चुनावी नतीजों का स्परुप तैयार करते है या फिर गली मुहल्ले के बुनियादी मुद्दे इस पर असर छोड़ते हैं. इन दोनों राज्यों के चुनावी परिणाम से कुछ पता चले या न चले, लेकिन इतना तो दोनों ही प्रमुख दलों को अंदाजा हो जाएगा कि 2014 के लोकसभा चुनाव में माहौल किसके लिए कैसा रहने वाला है. और किसे किस तरफ विचार करने की ज़रुरत है.
ये तो रही कांग्रेस पार्टी और कांग्रेस नेतृत्व वाली यूपीए की बात. अगर बात बीजेपी और बीजेपी नेतृत्व वाले एनडीए गठबंधन की हो, तो संकेत इनके लिए भी कोई खास दिखाई नहीं देते. ना तो सहयोगियों में तालमेल और ना ही मुद्दों की एकरुपता. ये ऐसी समस्या है जिसने पूरे एनडीए की चूल को हिला कर रखी है. ऐसे मौके पर जहां विपक्ष एकजुट होना चाहिए, उसमें भी कुछ दरकते रिश्तों की दस्तक सहयोगियों के बीच की खांई और चौड़ी करती जा रही है.
उधर समाजवादी पार्टी प्रमुख मुलायम सिंह यादव केंद्र की सत्ता की लालसा लिए अपने कदमों को चारों ओर फैलाने की जुगत में हैं. भले ही यूपीए का साथ दे रहे हों, लेकिन तीसरे मोर्चे का नेतृत्व करने को भी तैयार हैं। कुछ यही हाल मायावती का भी है. यूपी की सत्ता हाथ से जाने के बाद सही समय का इंतज़ार कर रही हैं।

इस माहौल का असर भविष्य की राजनीति पर क्या रहेगा कुछ कहा नहीं जा सकता. लेकिन वक्त बदलाव का है. क्योंकि जनता की उम्मीदों पर पानी कई बार फिर चुका है. इसलिए राजनीतिक दलों के लिए इस बार राहें उतनी आसान होने वाली नहीं है जितनी लगती हैं. इसलिए ये अब पब्लिक पर ही छोड़ देना चाहिए कि वो ऐसे मौके पर अपने दिल का इस्तेमाल करती है या फिर दिमाग से काम लेती है, और किसके हाथ में सौंपती है सत्ता की चाभी. वैसे भी इतनी टेंशन लेने का नई, ये पब्लिक है सब जानती है.

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