Monday, April 18, 2011

आलोचनाओं का संसार


आलोचनाओं का संसार

ये दुनिया बेहद ही जटिल है... जिसे समझ पाना शायद किसी के वश में नहीं ... और जो इसे समझ लेता है वो इससे कूच कर जाता है... जैसे ही आप दुनिया में  दाखिल होते हैं, आप घिर जाते हैं अनगिनत चीज़ों से... संस्कृति, सभ्यता, समाज , परंपरा और  रीति- रिवाज़ जैसी जाने कितनी चीज़ें हैं जो आपके इर्द गिर्द एक ऐसी दुनिया का निर्माण करती जो समझ से परे है... क्यूंकि किसकी क्या नीयत और क्या सही शक्ल है ये जान पाना और समझ पाना बड़ा ही मुश्किल हो जाता है... और यहीं से शुरू होती है जिंदगी में आगे निकल जाने की रेस ... इक ऐसी रेस जिसमें कई बातों का ख्याल भी रखना होता है कि कहीं गलती से भी कोई गलती ना हो जाए ... इन्ही सब बातों को ज़ेहन में रखकर ख्वाबों की स्लेट पर अपनी सोच की रोशनाई से कई चीज़े लिखते हैं हम... समाज की इन्हीं ऊंची ऊंची बातों के सागर में लोगों से जुडी उनकी एक और सामजिक ज़िम्मेदारी छुपी होती है... जिसे मैं आलोचना कहता हूँ... मसलन आप कितने भी गुणवान हों... आपके अन्दर चाहे कितनी भी ख़ूबियाँ क्यूँ ना हों पर आप आलोचना करने वाले इन विवेकहीन प्राणियों की जद में आने से खुद को बचा नहीं पायेंगे... 

मैं भी अपने हर एक पल से बहुत कुछ सीखने की कोशिश करता रहता हूँ... साथ ही काफी चीज़ों को अनुभव करने का भी मौका मिलता है... जिसमें व्यक्ति द्वारा व्यक्ति की हो रही आलोचना को मैं प्रमुखता से समझने का प्रयास करता हूँ... जिसे खिंचाई करना, निंदा करना, टांग खीचना जैसे भिन्न भिन्न शब्दों के तौर पर हम जानते हैं, जिसका मकसद सिर्फ और सिर्फ अपनी उपस्थिति दर्ज कराना मात्र ही रह गया है...  आलोचनाओं से भरे इस संसार की कुछ बातें अपने इस लेख - "आलोचनाओं का संसार"  के ज़रिये आप सभी से बांटने की कोशिश कर रहा हूँ... देश के जाने माने कवि रहीम दास का ये दोहा -- निंदक नियरे राखिये आँगन कुटी छवाए, बिन साबुन बिन तेल के निर्मल करे सुहाय-- जिसका मतलब अगर आप के आस पास कोई निंदक है तो आप तरक्की करेंगे... ये बात सिर्फ तब तक सही मानी जा सकती है जब तक वो निंदक आपका हितैशी हो...मौजूदा दौर की तस्वीर बदल चुकी है और आज के वक़्त में लोग आपकी आलोचना करके आपके मज़बूत इरादों को पस्त करने की जुगत में ज्यादा लगे रहते हैं... आज लोग अपनी तरक्की से खुश ना होकर दूसरों की कामयाबी से ज्यादा जलते  हैं... और यही वजह की समाज के प्रति हमारी धारणा बदलती जा रही है... भले ही हमे हर बात ज्ञातव्य ना हो पर अपने चारों और आलोचनाओं के होने का आभास ज़रूर हो जाता है... पैदा हुए नहीं कि जिंदगी की कसरत शुरू हो जाती है... जन्म अगर लड़की के रूप में हो गया तो ये समाज कोसने के अलावा कुछ करता ही नहीं... भले ही लड़कों के मुकाबले लड़कियों की संख्या कम हो फिर भी लड़के को समाज में जितना अहम् मान लिया गया है, उतना लड़कियों को नहीं... मतलब साफ़ है , कि बातों का आधार वही है "आलोचना"... दिक्कत लड़कों के साथ भी कम नहीं है , उन्हें भी इन आलोचनाओं के दंश को झेलना पड़ता है... बात तो ये है कि इंसान पृथ्वी ग्रह पर अवतरित एक सामाजिक जानवर है, बस जिसके पास भाषा है, संस्कृति है, थोड़ी बहुत समझदारी है जिसके चलते धरती के बाकी जानवरों से इंसान रुपी ये जानवर अलग आँका जाता है... लेकिन अपनी अच्छी सोच के अनुरूप कुछ अच्छा कर पाने में असमर्थ सा हो जाता है... क्यूंकि लोग अडंगा डालने से बाज़ नहीं आते... थोडा उम्र बढ़ी नहीं कि शुरू हो जाती है परिवार समेत  पड़ोसियों की टिप्पणियां ... जहाँ पारिवारिक लोग --- क्या करोगे अपनी ज़िंदगी में ... कुछ पढ़ लिख लो जीवन संवर जायेगा... तुमने देखा नहीं उनका लड़का पढ़ लिख के कितना आगे निकल गया... तुम तो मेरी समाज में नाक कटवा दो... कहीं मुह दिखाने के लायक मत छोड़ना हमे... जैसे शब्दों का इस्तेमाल करते नज़र आते हैं... वहीँ पडोसी -- अरे ये सब क्या कर रहे हो आज कल... कुछ कायदे के काम में मन लगाओ... ये देखो हीरो बनने चले हैं... अरे ओ गवैया ... दिन भर बस आवारा गर्दी ... अरे आज तो हमने उनके लड़के को वहां देखा था--- जैसी कई बातों को बोलकर अपना वक़्त काटते हैं और आलोचना पर आलोचना करने में जुटे रहते हैं ... जैसे जैसे हम उम्र के अलग अलग पड़ाव पर पहुँचते जाते हैं लोगों द्वारा हो रही आलोचनाओं की तस्वीर भी बदलती जाती है... ये सब लिखने के पीछे मेरी सिर्फ एक ही वजह है... जो मैंने समाज से सीखी है, कि अगर दिल में कुछ करने की ठान ली है या फिर कोई ख्वाब सजा लिया है... तो फिर इन आलोचनाओं के संसार से विरक्त हो कर अपने आस पास विश्वास और हिम्मत की एक नयी दुनिया कायम करनी ही होगी... लेकिन मज़बूत इरादों के साथ ये भी ध्यान रहे कि हमारे इस काम से किसी को भी कोई परेशानी ना हो... एक कहावत है कि --- लाठी उतनी ही दूर तक घुमानी चाहिए जहाँ तक किसी को चोट  न पहुंचे --- फिर क्या आराम से लाठी घुमाओं... लाठी घुमाना कोई अपराध थोड़े ना है... पर हाँ आलोचना करने वाले यहाँ भी पहुँच सकते हैं... जैसे ये क्या बेकार के काम में लगे हो जाओ कुछ और करो, पता नहीं लाठी घुमाने से क्या हासिल करेंगे... शायद इन लोगों को ये नहीं पता की लाठी घुमाना भी एक कला है... जब लोग थूकने जैसे कामों में रिकॉर्ड बनाकर गिनीज़ बुक में अपना नाम दर्ज करवा सकते हैं तो ये क्यूँ नहीं... मेरी बातें थोड़ी अजीब ज़रूर लग रही हो लेकिन मतलब साफ  है कि आलोचनाओं को छोड़कर अपनी मंजिल पाने में हमे जुट जाना चाहिए... अब इस दुनिया में अगर जन्म लिया है तो समाज के इन ठेकेदारों की तो सुननी ही होगी पर करो वही जो मन करे साथ ही ये भी याद रहे कि किसी का अहित ना हो... हमारी सोच यही होनी चाहिए कि अपने हौसलों को कभी पस्त नहीं होने देंगे और  निरंतर मज़बूत जज्बे के साथ अपने लक्ष्य की ओर अग्रसर रहेंगे फिर चाहे कितनी भी मुश्किलातें क्यूँ ना पेश आयें...  हमें निंदा और आलोचनाओं के दलदल में न फंसते हुए अपने में नित नए सुधार करके अपने को योग्य और कामयाब बानाने की ओर ध्यान केन्द्रित करना होगा...

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