Tuesday, August 5, 2014

तू ख्वाब है मेरा



तू ख्वाब है मेरा


तू ख्वाब है मेरा मेरी हक़ीकत जो बन जा
तो हक़ीकत को ख्वाब सा दिलचस्प बना दूं मैं


बस आरज़ू है तुझमें खुद को बसानें की मेरी
एक मौका तो दे कि तुझे अपना बना लूं मैं

तेरी आंखों के जज़ीरों में छुपा, कुछ ख़ास तो है
आ तुझे अपने दिल ओ दिमाग में बसा लूं मैं


तू ख्वाब है मेरा मेरी हक़ीकत जो बन जा
तो हक़ीकत को ख्वाब सा दिलचस्प बना दूं मैं...


हर नींद तुझे आग़ोश में लेता हूं कुछ ऐसे
कि सिमटी सी चादर भी पूछे मुझे कहां हूं मैं

मेरी हथेली का मखमली असर तुझपे ऐसा है
कि तेरे सुर्ख़ रुखसारों पर मचलती अदा हूं मैं


तू ख्वाब है मेरा मेरी हक़ीकत जो बन जा
तो हक़ीकत को ख्वाब सा दिलचस्प बना दूं मैं...


तू अपने ग़ुलाबी लबों से मुझे आवाज़ दे या नहीं
पर तेरी मुहब्बत के हर अहसास की सदा हूं मैं

तेरी शरीर की बनावट आयतों सी लगती है
है इतनी खूबसूरत कि पढ़ के खुद से जुदा हूं मैं

मेरी जुस्तजू के हंसी ख़्वाब जो तू बन जाए
फिर देख मेरे दिल की दुनिया का ख़ुदा हूं मैं



तू ख्वाब है मेरा मेरी हक़ीकत जो बन जा
तो हक़ीकत को ख्वाब सा दिलचस्प बना दूं मैं...

Sunday, May 4, 2014

आओ जानें काशी




आओ जानें काशी

जहां मिलें साधु सन्यासी,
समझो पहुंच गए हो काशी,

मंदिरों की छाया निर्मल,
कलकल करता गंगा का जल,

उगता सूरज घाट चमकते,
अस्त हुए पर आरती करते,

भंग के रंग में मलंग हुए जो,
जय जय भोले करता है वो,

चंदन घिस कर माथे पर जब,
शंख पकड़ कर हाथों में तब,

गंगा की सौगंध हैं खाते,
सबको ही हरदम अपनाते,

जात न जाने, पात न जाने,
सबको एक सा ही पहचाने,

मंदिर वहीं, वहीं है मस्ज़िद,
काशी की अपनी ही है ज़िद,

मैं और तुम का सवाल कहां है,
हम की मिलती मिसाल यहां है,

स्कूल मदरसे सभी यहीं हैं
दिलों से जुदा यहां कोई नहीं है,

फिरका परस्ती नहीं हैं जाने,
नेताओं को सबक सिखाने,

तय करके सब ग्रह और राशि,
हो गई तैयार है काशी...

Wednesday, June 26, 2013

चार लाईनां

चार लाईनां बुरा ना मानों...


चीनी चावल गोल किए गोदाम भरे हैं ऐसे,
लूट के भोली जनता को जेबों में भरे हैं पैसे,
कहते हैं ये चूस लो ये तो पब्लिक है लाचार,
भ्रष्टाचार का धर्म निभाओ चाहे जैसे तैसे ।

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अक्षर से शब्द बनाते हैं शब्दों से वाक्य विन्यास,
भाषाओं का ज्ञान मिले तो होता सबका विकास,
पढ़ना लिखना हर कोई चाहे है शिक्षा अधिकार,
साक्षरता की जगे अलख बने जीवन की आस ।

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Friday, May 17, 2013

इंडियन प्रीमियर लीग या इंडियन दागी लीग




इंडियन प्रीमियर लीग या इंडियन दागी लीग

आईपीएल. बोले तो इंडियन प्रीमियर लीग. लेकिन कुछ विवादों ने इसको कई नाम दे डाले हैं. मसलन इंडियन पैसा लीग, इंडियन पचड़ा लीग, इंडियन पकाऊ लीग और जाने क्या क्या. इस बार आईपीएल की साख पर थोड़ा और बट्टा लगा और फिर से नामकरण हो गया. अबकी बार नाम मिला इंडियन फिक्सिंग लीग. 2008 में आईपीएल की आधारशिला रखी गई और तब से ही इसको अलग अलग तरह की आलोचनाओं का सामना करना पड़ा है. कभी आईपीएल, पूर्व आईपीएल कमिश्नर ललित मोदी की वजह से सुर्खियों में रहा, तो कभी चीयर लीडर्स ने इसे आलोचकों के निशाने पर रखा, एक मौका तो ऐसा भी आया जब दो भारतीय खिलाड़ी अलग अलग फ्रेंचाईजी टीमों से खेलते हुए आपस में ही भिड़ गए, तो थप्पड़ की गूंज ने आईपीएल को फिर से कमेंट का शिकार बना दिया. लेकिन ये कुछ ऐसे विवाद थे, जिसका बहुत प्रतिकूल असर दर्शकों पर नहीं पड़ा और सभी ने इन विवादों के बीच आईपीएल को जमकर एंजॉय किया. 2008 से शुरु हुआ आईपीएल का सफ़र 2013 में पहुंच चुका है. इस बीच बड़े बदलावों को इस अट्रैक्टिव लीग ने देखा और जिया है. फिर चाहे इसके प्रेजेंटेशन का हर बार बदलता तरीका हो, नियमों में थोड़े फेरबदल हों, देश से बाहर (साउथ अफ्रीका) आईपीएल का आयोजन हो या फिर कुछ नई फ्रेंचाईजी टीमों( पुणे वॉरियर्स, सनराईजर्स हैदराबाद, डेक्कन चार्जर्स और कोच्चि टसकर्स) का आना जाना हो. लेकिन लोगों ने आईपीएल और इसके देशी, विदेशी खिलाड़ियों को हर बार सिर आंखों पर बिठाया है. जिस बात का डर क्रिकेट में हमेशा लगा रहता है, वो आईपीएल के पिछले पांचो सीजन में तो उजागर नहीं हुई, लेकिन छठे सीज़न में फिक्सिंग के फांस में आईपीएल दाग़दार हो ही गया. भले मैच फिक्सिंग न हुई हो, लेकिन स्पॉट फिक्सिंग भी कोई छोटी बात नहीं है. इस बार नाम तीन भारतीय क्रिकेटरों (एस श्रीसंत, अंकित चव्हाण, अजीत चंडीला ) का सामने आया है, पुलिस के पास इनके फिक्सिंग में फंसे होने के पुख्ता सबूत भी हैं. लोगों को सबसे बड़ा झटका श्रीसंत का नाम आने से लगा है. जो लोग आज तक स्टेडियम और इसके बाहर श्रीसंत का नाम गर्व से अपने माथे और पोस्टर पर लिख कर श्रीसंत श्रीसंत चिल्लाते नजर आते थे, वही आज श्रीसंत के पोस्टर पर जूते मारकर श्रीसंत श्रीसंत चिल्लाते नजर आ रहे हैं. लेकिन इस सब से एक बात तो साफ होती है कि पैसे की भूख किसी को भी कुछ भी करने के लिए राज़ी कर सकती है, फिर चाहे वो देश के साथ ग़द्दारी हो या अपने ज़मीर के साथ. अब सवाल उठता है कि ये सब रुके कैसे. बीसीसीआई की इस पैसा लीग में करप्शन को रोकने के लिए आईसीसी भी निगरानी करती है, लेकिन फिर भी ऐसे कामों को रोक नहीं पाती. बीसीसीआई के मुताबिक उसने हर तरीके से पारदर्शी तौर पर इस लीग को कराने के उपाय किए हैं, और कोई ऐसा दरवाज़ा भी खुला नहीं छोड़ा जहां से कुछ गड़बड़ हो सके. लेकिन ऐसे कामों को अंजाम देने के लिए बीसीसीआई की नाक के नीचे कितने गुप्त दरवाजे और रोशनदान बनें हैं, इस बारे में बीसीसीआई को गंभीरता से सोचने की जरुरत है. वरना एक दिन ऐसा भी आ सकता है कि हर एक बॉल पर लगे चौके और छक्के को दर्शक शक की निगाह से देखेंगे. खैर ये बात सही है कि दोषियों के खिलाफ कड़ी से कड़ी कार्रवाई होनी चाहिए, लेकिन ऐसे मामलों के सामने आने के बाद ना केवल उस खिलाड़ी की बदनामी होती है, बल्कि उस देश की भी होती है जिसका अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर ये खिलाड़ी प्रतिनिधित्व करते हैं. मैं व्यक्तिगत तौर पर इन खिलाड़ियों का न तो बचाव कर रहा हूं, न ही किसी भी तरह का समर्थन. लेकिन क्या इन खिलाड़ियों को रंगे हाथों पकड़ने के बाद इनके नामों को इस तरीके से प्रदर्शित किया जाना ठीक है ? क्या आंतरिक रुप से किसी एक्शन कमिटी को इन पर कार्रवाई नहीं करनी चाहिए ?  फिर चाहे गुप्त तरीके से इन पर लाइफ टाइम बैन लगाकर इन्हें खेलने से रोका जाना ही क्यूं न हो. क्योंकि इन पर हुई कार्रवाई पब्लिक डोमेन में आने के बाद इन खिलाड़ियों के साथ साथ देश को भी बदनाम करती है, साथ ही खेल के प्रति लोगों के उत्साह और प्यार को कम ही नहीं बल्कि ख़त्म भी कर सकती है. और इसका असर पूरी खिलाड़ी कौम पर भी पड़ेगा, जो एक खेल और उससे जुड़ी प्रतियोगिता के लिहाज़ से बिल्कुल भी ठीक नहीं लगता.

Sunday, October 28, 2012

ये पब्लिक है सब जानती है.!



ये पब्लिक है सब जानती है.!

कसरत-2014... यूपीएएनडीए या फिर कोई और.!

लोकसभा चुनाव 2014 से पहले प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने अपनी सरकार का फेशियल किया है। केंद्रीय मंत्रिमंडल में तीसरे और अब तक के सबसे बड़े फेरबदल में सात नए कैबिनेट मंत्री और 15 नए राज्य मंत्रियों (दो स्वतंत्र प्रभार समेत) को सरकार में शामिल कर प्रधानमंत्री ने नई टीम बना ली है। ऐसा माना जा रहा है कि नए चेहरों और कई प्रमुख विभागों में प्रधानमंत्री का ये अंतिम फेरबदल है।
जिन सात कैबिनेट मंत्रियों को राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने शपथ दिलाई, उनमें के रहमान खान और चंद्रेश कुमारी कटोच नए चेहरे हैं, जबकि पांच राज्य मंत्रियों का ओहदा बढ़ाकर उन्हें कैबिनेट मंत्री का दर्जा दिया गया। पंजाब से मनीष तिवारी और आंध्र प्रदेश से अभिनेता से नेता बने चिरंजीवी पहली बार मंत्री बने हैं। दोनों को स्वतंत्र प्रभार का राज्य मंत्री बनाया गया है। राज्य मंत्रियों में शशि थरूर की फिर वापसी हुई हुई।
लंबे समय से भ्रष्टाचार समेत कई अन्य मामलों में विपक्षी हमलों से जूझ रहे प्रधानमंत्री ने अपने पांच राज्य मंत्रियों को कैबिनेट का ओहदा देकर उनके अनुभव को सरकार के लिए कारगर साबित करने की कोशिश की है। इतने बदलावों के बाद भी यूपीए-2 का भविष्य क्या होगा न तो ये तय है, और न ही ये कि 2014 में यूपीए की वापसी हो पाएगी. वैसे भी सरकारें आना जाना लोकतंत्र का नियम है. किसी सरकार ने कुछ अच्छा कर दिया तो उसके इंकम्बैंट होने के मौके बन जाते हैं, वरना एंटी इन्कम्बैंसी का फायदा उठाते हुए विपक्ष के हाथों में सत्ता की बागडोर चली जाती है. लेकिन जब सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों पर आरोप लग रहे हों, तब देश का भविष्य कैसा होगा, सवाल ये अहम हो जाता है. लेकिन उसके फौरन बाद दिमाग में आता है कि जनता की सोच पहले क्या थी और अब वो कैसे सोच रही है.? साथ ही भविष्य के चुनावों को लेकर उसकी मन:स्थिति आखिर क्या होगी.? मामला बेहद गंभीर और मकड़जाल जैसा है. यानि जितना घुसे उतना ही फंसते जाएंगे.
ऐसे में किसी ना किसी पर तो भरोसा करना ही पड़ेगा. देखा जाय तो मूल रुप से दो ही बड़े गठबंधन नज़र आते हैं. यूपीए और एनडीए. लेफ्ट ने यूपीए से नाता तोड़ने के बाद अपनी राहें अलग कर रखी हैं, लेकिन भविष्य किसके साथ तलाशने की जुगत चल रही है पता नहीं. इसके अलावा तीसरे और चौथे मोर्चे का स्परुप भी फिलहाल स्पष्ट है नहीं. मतलब साफ है कि भविष्य में या तो यूपीए की फिर से वापसी या  एनडीए में ही जोड़ तोड़ के आसार नज़र आते हैं. भले ही देश के तमाम बड़े राजनीतिक दल अपनी अपनी बातें कर रहे हो लेकिन अटकलों का बाज़ार तो यूपीए और एनडीए से ही गुलज़ार है. अब सवाल ये बनता है कि आखिर किसको कैसे फायदा मिल सकता है.
बात अगर यूपीए की हो, तो यूपीए के दामन में भ्रष्टाचार के ऐसे दाग लगे हैं कि उसे इतनी जल्दी छुटा पाना उसके लिए आसान नहीं है, लेकिन सरकार की कार्यप्रणाली से देश की जनता त्राहिमाम त्राहिमाम ज़रुर कर रही है. हसन अली हवाला घोटाला, कैश फॉर वोट मामला, सीडब्ल्यूजी घोटाला, 2जी घोटाला, कोलगेट मामला, टाट्रा ट्रक घोटाला, इसरो-देवास डील, तमाम सरकारी योजनाओं में अनियमितताओं के आरोपों से दो चार होने वाली कांग्रेस नेतृत्व वाली यूपीए सरकार की कमर बढ़ी महंगाई ने भी थोड़ी सी झुका दी है. केंद्र के साथ साथ कई राज्यों में भी कांग्रेस सत्ता में हैं लेकिन कहीं से भी कांग्रेस के लिए कोई बड़ी राहत की ख़बर नहीं आ रही है.
हालही में कुछ मसलों पर सरकार के फैसलों के चलते सरकार की अहम सहयोगी के तौर पर जानी जा रही टीएमसी और झारखंड विकास मोर्चा ने तो यूपीए से किनारा कर ही लिया है और कुछ सहयोगी अंदर ही अंदर गुस्से को छुपाए बैठे हैं लेकिन उनकी तरफ से भी यूपीए को कब झटका मिल जाए कुछ कहा नहीं जा सकता. खास कर एनसीपी और डीएमके की यूपीए से तल्खी जग ज़ाहिर है. दो राज्यों में इसी साल के अंत तक विधानसभा चुनाव संपन्न होने है. और दोनों में ही कांग्रेस का मुख्य मुकाबला सत्ताधारी बीजेपी से है. देखना दिलचस्प होगा कि राष्ट्रीय मुद्दे चुनावी नतीजों का स्परुप तैयार करते है या फिर गली मुहल्ले के बुनियादी मुद्दे इस पर असर छोड़ते हैं. इन दोनों राज्यों के चुनावी परिणाम से कुछ पता चले या न चले, लेकिन इतना तो दोनों ही प्रमुख दलों को अंदाजा हो जाएगा कि 2014 के लोकसभा चुनाव में माहौल किसके लिए कैसा रहने वाला है. और किसे किस तरफ विचार करने की ज़रुरत है.
ये तो रही कांग्रेस पार्टी और कांग्रेस नेतृत्व वाली यूपीए की बात. अगर बात बीजेपी और बीजेपी नेतृत्व वाले एनडीए गठबंधन की हो, तो संकेत इनके लिए भी कोई खास दिखाई नहीं देते. ना तो सहयोगियों में तालमेल और ना ही मुद्दों की एकरुपता. ये ऐसी समस्या है जिसने पूरे एनडीए की चूल को हिला कर रखी है. ऐसे मौके पर जहां विपक्ष एकजुट होना चाहिए, उसमें भी कुछ दरकते रिश्तों की दस्तक सहयोगियों के बीच की खांई और चौड़ी करती जा रही है.
उधर समाजवादी पार्टी प्रमुख मुलायम सिंह यादव केंद्र की सत्ता की लालसा लिए अपने कदमों को चारों ओर फैलाने की जुगत में हैं. भले ही यूपीए का साथ दे रहे हों, लेकिन तीसरे मोर्चे का नेतृत्व करने को भी तैयार हैं। कुछ यही हाल मायावती का भी है. यूपी की सत्ता हाथ से जाने के बाद सही समय का इंतज़ार कर रही हैं।

इस माहौल का असर भविष्य की राजनीति पर क्या रहेगा कुछ कहा नहीं जा सकता. लेकिन वक्त बदलाव का है. क्योंकि जनता की उम्मीदों पर पानी कई बार फिर चुका है. इसलिए राजनीतिक दलों के लिए इस बार राहें उतनी आसान होने वाली नहीं है जितनी लगती हैं. इसलिए ये अब पब्लिक पर ही छोड़ देना चाहिए कि वो ऐसे मौके पर अपने दिल का इस्तेमाल करती है या फिर दिमाग से काम लेती है, और किसके हाथ में सौंपती है सत्ता की चाभी. वैसे भी इतनी टेंशन लेने का नई, ये पब्लिक है सब जानती है.

Wednesday, August 22, 2012

अब्दुल शर्मा की विदाई


अब्दुल शर्मा की विदाई

सुबह के 8 बजे थे, हल्की बारिश हुई थी, इसलिए मौसम बड़ा प्यारा था। हाथ में चाय का प्याला थामें, ऐसी चुस्की लगा रहा था वो, मानों ये उसकी जिंदगी की आखिरी चुस्की हो। बाकायदा पलथी मारे आराम से बैठा था वो, ना बीते हुए कल का ध्यान, ना ही आने वाले कल की फिक्र। आज की भी कोई चिंता नहीं थी। दिमाग में चल रहा था तो बस वो पल जिसे वो अपने तरीके से जी रहा था। गरमा गरम चाय की चुस्कियां लगाता वो, अब्दुल शर्मा था। आप सोच रहे होंगे कि भला ये कैसा नाम हुआ। इसका तर्क कहानी के अगले कुछ पड़ावों में मिल जाएगा। पहले अब्दुल शर्मा के शाही अंदाज़ों से भरी जिंदगी की बात कर लें। पलथी मार के बैठना उसकी आराम तलबी नहीं बल्कि उसकी मजबूरी थी। अब्दुल शर्मा पैरों से अपाहिज था। उसे किसी भी बात की चिंता या फिक्र इसलिए नहीं थी, क्योंकि वो किसी रईस खानदान का चिराग था। या किसी बड़ी विरासत का वारिस । ऐसा कुछ नहीं था। अब्दुल शर्मा तो महज एक भिखारी था। कोई अगर कुछ दे दो तो खा पी कर अपना पेट भर लेता और बढ़ जाता अपनी जिंदगी की अगली चुनौतियों की ओर। किसी ने कुछ पैसे दे दिए और कभी मौका लगा तो अपने मन माफिक चीज खरीद कर खा ली। यही थी अब्दुल शर्मा की ज़िंदगी। तन पर एक फटा सा कुर्ता था जो इतना बदरंग हो चुका था कि ये पता लगाना मुश्किल था कि उसका रंग कभी क्या रहा होगा। चेहरे पर झुर्रियां, आंखे डबडबाई सी मालूम होती, लगता जाने कितने सवाल पूछ रहीं हों, और जिसका जवाब किसी के पास नहीं। अब्दुल के अब्दुल शर्मा नाम के पीछे का कारण अब्दुल का अपना फलसफा था।  अब्दुल समाज की उस खूबसूरत प्रथा की निशानी था जिसे लोग प्यार कहते हैं। प्यार शुरु तो आंखों से होता पर खत्म जिस्मानी संबंधों पर। फिर वजूद में आते, ऐसे ही तमाम अब्दुल जिनके जीवन का असली मकसद क्या है, शायद ऊपर वाले को भी नहीं पता। अब्दुल को भी नहीं पता था कि वो इस दुनिया में आया कैसे। ख़ैर हम भी क्यूं उलझें समाज की ऐसी घिनौनी प्रथा में। अब्दुल ने खुद ही अपना नाम अब्दुल शर्मा रख लिया था। अब्दुल एक नेक दिल इंसान था पर खाने पीने का शौकीन भी। उसने अपना नाम अब्दुल शर्मा इसलिए रख लिया जिससे वो इस दुनिया को चलाने वाले परवरदिगार के हर रुपों और उसके बनाए इंसानी पुतलों के करीब रह सके। नाम अब्दुल था इसलिए मस्जिद के मुहाने पर बैठ जाता, आने जाने वालों से जो कुछ मिलता उससे गुजारा चलाता। ठीक ऐसा ही वो मंदिर की सीढ़ियों पर बैठ कर करता, नाम अब्दुल शर्मा जो था। ना मस्जिद में उसे नमाज पढ़नी होती, ना ही मंदिर में पाठ पूजा करनी। अब्दुल को मुहल्ले में रहने वाला हर बड़ा बूढ़ा यहां तक कि बच्चा बच्चा जानता था। उसे लोग कई सालों से उसी मुहल्ले में देख रहे थे। ये किसी को भी नहीं पता था, कि वो आया कहां से और कब। मेरा नाम राहुल है। मैंने अब्दुल शर्मा को बहुत नजदीक से देखा था। वो मेरे मुहल्ले में ही घूमता फिरता रहता था। मुहल्ले के पास ही एक बाजार था। थोड़ी दूर पर एक चौड़ी सी मेन रोड जिस पर गाड़ियां किसी रॉकेट जैसी दौड़ती भागती नज़र आती। अक्सर अब्दुल यहीं पर घूमता फिरता रहता था। मैं भी अपने बचपन से थोड़-थोड़ा बाहर आ चुका था। कहुं तो मैं थोड़ा सा बड़ा  हो चुका था। लेकिन सच कहूं तो मैं अब भी एक बच्चा ही था। मैंने अब्दुल चाचा को बचपन से अब तक देखा था। वो ना किसी से झगड़ते और ना ही किसी को कुछ गलत कहते। प्यार की बोली और समझदारी ही अब्दुल को सबसे अलग बनाती थी। कई बार हंसी खेल में वो कुछ ऐसी बातें कर जाता कि हर कोई दंग रह जाता। अब्दुल एक भिखारी था, सो भीख में किसी ने कुछ दिया तो ठीक, नहीं दिया तो भी ठीक। लेकिन उसके मुंह से दुआएं सबके लिए ही निकलती। लेकिन अब्दुल शर्मा यानि मेरे अब्दुल चाचा को चाय बेहद पसंद थी। लिहाजा मुहल्ले की एक चाय की दुकान पर उनका रोज़ाना जाना तय था। अब्दुल चाचा हर मौसम में उस चाय की दुकान में सुबह 8 बजे पहुंच जाते। बशर्ते दुकान खुली हो। चाय वाला राकेश भी दिल से बहुत आला इंसान था। अब्दुल शर्मा के पहुंचते ही सारे ग्राहकों को पीछे कर अब्दुल को चाय और खाने के लिए दो चार बिस्कुट दे देता। खास बात तो ये कि राकेश अब्दुल से पैसा भी नहीं लेता। यही हर रोज़ चलता रहता। चूंकि मेरा घर चाय की दुकान के पास ही था तो मैं अक्सर किसी ना किसी वजह से वहां से गुजरता, तो अब्दुल चाचा पर नजर पड़ ही जाती और उनसे दुआ सलाम भी हो ही जाता था।  मेरे मुहल्ले का नाम पवित्र नगर था । मुहल्ले में कोई भी जात-पात, अमीर-गरीब जैसी चीजों पर ध्यान नहीं देता। हर कोई सबकी मदद के लिए हर वक्त तैयार रहता। जैसा मुहल्ले का नाम वैसे ही यहां के लोग। ये सिर्फ मैं नहीं कह रहा, जो हमारे मुहल्ले के बारे में जानता वो हर इंसान भी यही कहता। सब कुछ अच्छा चल रहा था। हर रोज़ की तरह ही सुबह का सूरज अपने पूरे शबाब पर था। सूरज का रंग भी मुहब्बत और  खुशी की तरह सुर्ख लाल दिखाई पड़ रहा था।  हर कोई अपने अपने कामों में लगा हुआ था। दिन धीरे धीरे चढ़ रहा था। दोपहर लगभग 1 बजे के आस पास अचानक मस्जिद के मुहाने पर एक धमाका हुआ। पता लगा कि 15 से 20 लोग घायल हो गए और 2 बच्चों की मौत हो गई। कोई हालातों को समझ ही पाता कि पूरे पवित्र नगर में ऐसी मार काट मची कि पवित्र नगर की एक-एक गली अपवित्र सी दिखने लगी। जहां कल तक प्यार और अपनेपन की इबारत लिखने को बेताब रहते थे लोग। कल तक जो लोग सबको ऊपर वाले की नेमत मानने का दावा करते नहीं थकते थे। आज वो सड़कों पर हिंदू और मुस्लिम के नारे लगा रहे थे। दिल में नफरत की आग लगाए पूरे पवित्र नगर को जला कर राख कर देना चाहते थे। हर कोई अपने समुदाय से अलग इंसान को पागल कुत्ते की तरह ढूंढ रहा था, जैसे मानों सदियों से चली आ रही कोई दुश्मनी निभा रहें हों। पूरे पवित्र नगर में नालियों में खून की धारा बह रही थी। माहौल पूरी तरह तनावभरा हो गया। फिर क्या पुलिस और कुछ और सुरक्षा बलों ने इलाके को अपने कब्ज़े में ले लिया। इलाके में कर्फ्यू लगा दिया गया। दो चार दिन बाद माहौल थोड़ा शांत हुआ तो हर कोई अपने अपने परिवार के लोगों की खोजबीन में जुट गया। किसी का बेटा बिछड़ गया, तो किसी के मां बाप। तो किसी का कोई और। मुहल्ले से बाहर निकलते ही कुछ दूर पर एक चर्च था। अपनों की तलाश करते लोग इस उम्मीद के साथ चर्च के पास पहुंचे कि शायद उसके आस पास उनका कोई अपना मिल जाए। लेकिन उन्हें क्या पता था कि चर्च का दरवाजा खुलते ही उनके होशफाख्ता हो जाएंगे। इत्तेफाक से किसी ने चर्च का दरवाज़ा खोला तो अंदर का मंजर देखते ही वहां मौजूद हर शख्स हैरान था और अपने को कोस रहा था। चर्च के अंदर करीब बीस पच्चीस हिंदू और मुस्लिम बच्चे अपने अब्दुल शर्मा चाचा के साथ महफूज थे। दंगे के वक्त अब्दुल उन सबको लेकर चर्च में इसीलिए दाखिल हो गया था क्योंकि चर्च में खतरा बहुत कम था। मुहल्ले से बाहर होने के चलते चर्च तक दंगों की लपट नहीं पहुंच पाई। सब अपने अपने बच्चों को देखकर खुश थे। अब्दुल ने ऐसा काम कर दिया था जिसका कोई मोल ही नहीं था। मैं ये सब इसीलिए जानता हूं, क्योंकि चर्च में अब्दुल चाचा की निगरानी में महफूज बच्चों में से एक मैं भी था। हर कोई इस त्रासदी और पवित्र नगर को अपवित्र करने का जिम्मेदार खुद को मान रहा था।  लेकिन दुख इस बात का ज्यादा था कि दंगे में अब्दुल चाचा भी बुरी तरह घायल हो गए थे, और उनकी सांसे टूट रहीं थीं। मानों जिंदगी कई सवाल छोड़ जाने को बेताब थी और सांसों ने जिंदगी का दामन छोड़ देने की ठान ली थी। और आखिरकार हुआ वही जो कोई नहीं चाहता था। अब्दुल शर्मा सबको छोड़ उस दुनिया में चला गया, जहां ना तो कोई आपाधापी थी, ना ही समाज के कथित नियम कायदे और कानून। बिल्कुल असली पवित्रनगर के जैसी वो दुनिया होगी जिसमें अब्दुल चाचा ने कदम रख दिया था। लेकिन सबके दिलों में अब्दुल ने एक टीस और एक सबक जरुर छोड़ दिया था। और छोड़ दिए इस समाज के सामने कई सवाल जिसके जवाब आज भी कोई ढूंढ नहीं पाया। उनके इस दुनिया से रुखसत होने के बाद पवित्रनगर के हालात तो सुधर गए।  लेकिन सबके दिलों में एक लकीर भी पड़ गई थी जो पता नहीं कब धुंधली पड़ेगी। पता नहीं कि उस अब्दुल की जात क्या रही होगी, हिंदु - मुस्लिम या कुछ और। लेकिन जो जिंदगी का पाठ अब्दुल ने पढ़ाया वो किसी गीता कुरान में लिखी गईं तमाम बातों से कम भी नहीं है। एक घुमक्कड़ी और फक्कड़ी करने वाला भिखारी जिसे अपनी जिंदगी का होश नहीं था, उसने कितनी जिंदगियों को बचा लिया। मेरा दिल बार बार यही कहता रहता कि काश तुम आज भी मेरे पास होते अब्दुल चाचा।

Tuesday, May 22, 2012

नेताओं की चाल, संसद के साठ साल



नेताओं की चाल, संसद के साठ साल


संसद हुई साठ की, नेताओं को ये ख्याल रहे,

जो हुआ वो ठीक, अब क्या करें ये सवाल रहे,

दे जाएं देश को कुछ खास ना कोई मलाल रहे,

दामन साफ हो इतना, कि इनकी मिसाल रहे,

संसद हुई साठ की, नेताओं को ये ख्याल रहे...



अपने पराए में ना करें फर्क सबके जलाल रहें,

भ्रष्टाचार, अपराध जैसा ना कोई बवाल रहे,

आंसू नहीं अंाखों में उजाले हों ये कमाल रहे,

खुशियों की उड़े खुशबू ऐसे जैसे गुलाल रहे,

संसद हुई साठ की, नेताओं को ये ख्याल रहे...



रूपए से नहीं सबकी दुआआंे से मालामाल रहें,

जनहितकारी बनें कानून संसद का ये हाल रहे,

शायद सदन की गरिमा तब बनी हर साल रहे,

अपने देश में जब इक सशक्त लोकपाल रहे,

संसद हुई साठ की, नेताओं को ये ख्याल रहे...